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दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी / अमजद इस्लाम
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दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी
रोका तो बहुत दिल ने मगर एक न मानी
मैं भीगती आँखों से उसे कैसे हटाऊ
मुश्किल है बहुत अब्र में दीवार उठानी
निकला था तुझे ढूंढ़ने इक हिज्र का तारा
फिर उसके ताआकुब में गयी सारी जवानी
कहने को नई बात हो तो सुनाए
सौ बार ज़माने ने सुनी है ये कहानी
किस तरह मुझे होता गुमा तर्के-वफ़ा का
आवाज़ में ठहराव था, लहजे में रवानी
अब मैं उसे कातिल कहूँ 'अमज़द' कि मसीहा
क्या ज़ख्मे-हुनर छोड़ गया अपनी निशानी
अब्र=घटा
हिज्र=जुदाई
ताआकुब=पीछा
गुमा=अंदाज़