दरिया को पागल करने को अक्स-ए-समुन्दर काफ़ी था / ज़ाहिद अबरोल
दरिया को पागल करने को अक्स-ए-समुन्दर[1] काफ़ी था
ख़्वाब में और जुनूँ[2]भरने को ज़िह्न-ए-सुख़नवर [3]काफ़ी था
झुकने को तैयार था लेकिन जिस्म ने मुझको रोक दिया
अपनी अना[4]ज़िन्दा रखने का जो बोझ सर पर काफ़ी था
अपने-अपने वक़्त पे सारे दुनिया जीतने निकले थे
शाह[5] थे वो कि फ़क़ीर सभी का लोगों में डर काफ़ी था
दुनिया को दरकार [6]नहीं था अज़्म[7] सिकन्दर जैसों का
बुद्ध ,मुहम्मद,ईसा, नानक-सा इक रहबर[8] काफ़ी था
तीन बनाए ताकि वो इक दूजे पर धर पायें इल्ज़ाम[9]
वरना गूँगा, बहरा, अन्धा, एक ही बन्दर काफ़ी था
ग़म दुख दर्द,मुसीबत, ग़ुर्बत[10] सारे यकदम टूट पड़े
इस नाज़ुक़ से दिल के लिए तो एक सितमगर[11] काफ़ी था
‘ज़ाहिद’ बारिश-ए-संग[12]गिराँ[13] और ख़्वाबों के ये शीश महल
इन के लिए तो ग़फ़लत[14] का इक नन्हा पत्थर काफ़ी था