दरीचे के करीब / नून मीम राशिद
जाग ऐ शम्मा-ए-शबिस्तान-ए-विसाल
महफिल-ए-ख़्वाब के इस फर्श-ए-तरब-नाक से जाग !
लज़्जत-ए-शब से तेरा जिस्म अभी चूर सही
आ मेरी जान मेरे पास दरीचे के क़रीब
देख किस प्यार से अनवार-ए-सहर चूमते हैं
मस्जिद-ए-शहर के मीनारों को
जिन की रिफ़अत से मुझे
अपनी बरसों की तमन्ना का ख़याल आता है।
सीम-गूँ हाथों से ऐ जान ज़रा
खोल मय-रंग-जुनूँ-खेज़ आँखें !
उसी मीनार को देख
सुब्ह के नूर से शादाब सही
उसी मीनार के साए तले कुछ याद भी है
अपने बे-कार ख़ुदा की मानिंद
ऊँघता है किसी तारीक निहाँ-खाने में
एक अफ़्लास का मारा हुआ मुल्ला-ए-हज़ीं
एक इफ्रीत उदास
तीन सौ साल की ज़िल्लत का निशां
ऐसी ज़िल्लत के नहीं जिस का मदावा कोई !
देख बाज़ार में लोगों का हुजूम
बे-पनाह सैल के मानिंद रवाँ
जैसे जिन्नात बयाबानों में
मिशअलें ले के सर-ए-शाम निकल आते हैं
उन में हर शख़्स के सीने में किसी गोशे में
एक दुल्हन सी बनी बैठी है
टिमटिमाती हुई नन्हीं सी ख़ुदल की किंदील
लेकिन इतनी भी तवानाई नहीं
बढ़ के उन में से कोई शोला-ए-जवाला बने !
इन में मुफ़लिस भी हैं बीमार भी हैं
ज़ेर-ए-अफ़्लाक मगर जु़ल्म सहे जाते हैं !
एक बूढ़ा सा थका माँदा सा रह-वार हूँ मैं !
भूक का शाह-सवार
सख़़्त-गीर और तन-ओ-मंद भी है
मैं भी शहर के लोगों की तरह
हर शब-ए-ऐश-गुज़र जाने पर
ब-हर-जमा-ए-ख़स-ओ-ख़शाक निकल जाता हूँ
चर्ख़ गर्दां है जहाँ
शाम को फिर उसी काशाने में लौट आता हूँ
बे-बसी मेरी ज़रा देख के मैं
मस्जिद-ए-शहर के मीनारों को
इस दरीचे में से फिर झाँकता हूँ
जब उन्हें आलम-ए-रूख़्सत में शफ़क चूमती हैं !