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दरी बिछाकर बैठे / सुधांशु उपाध्याय
Kavita Kosh से
आओ छत पर
पानी छिड़कें
दरी बिछा कर बैठें
चाँद झर रहा और चाँद से
पीठ सटा कर बैठें।
छोटे-छोटे पल भी
दुनिया बड़ी बनाते हैं
वैसे तो हालात
हमें बस घड़ी बनाते हैं
कुछ पत्तों का हिलना देखें
चेहरों पर चाँदनी मलें और
बल्ब बुझा कर बैठें।
बहुत पास से ट्रेन गुज़रती
हाथ हिलाती है
भूले-छूटे रिश्तों को वह
याद दिलाती है
किसी जगह का सपना देखें
पुल का धीमें कंपना देखें
इस छत को ही नदी समझ लें
नदी जगा कर बैठें।
खिड़की का वह हिलता परदा
राज़ बताता है
कैसे घर के भीतर कोई
आग छिपाता है
देखें थोड़ा पार घरों के
खोल तोड़ते हुए डरों के
चाँदी के ये फूल उड़ रहे
फूल सजाकर बैठें।