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दर्दों के जलतरंग बज उठे / श्याम निर्मम

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तुम शिखर बनो
हम तो नींव हैं
गहराई में और भी धँसेंगे  !

सूख गई
सलिला प्राणों की
दर्दों के जलतरंग बज उठे,
बचपन के, यौवन के
मोहक मादक गुँजन
सपनों में सिरज उठे ।

तुम मुखर बनो
हम तो मौन हैं
धड़कन के नगर में बसेंगे !

लिपटे हैं शाख-शाख
सोमरसी चितवन के
किसलय अहसास,
टूट गए
प्रकृतिजन्य
कल के सब दम्भी विश्वास ।

तुम विपिन बनो
हम तो फूल हैं
झर-झर कर रेत पर हंसेंगे !

आँखों के
बरसाती बादल
उमड़-घुमड़ रोज़ ही बरसते,
होठों पर
प्यास के पठार
बून्द-बून्द नीर को तरसते ।

तुम जलधि बनो
हम तो द्वीप हैं,
मोती से सीप में सजेंगे !

अँधियारा लील गया
मन के
उजियारे की आव,
कुछ ने ही पहचाने
तन के अभिशापित
अनुबन्धों के घाव ।

तुम अमर बनो
हम तो जन्म हैं
बार-बार बाँहों में मृत्यु को कसेंगे !