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दर्दो-ग़म, आहो-फुगां, आज़ार है / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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दर्दो-ग़म, आहो फुगां आज़ार है
बिन तेरे जीना बहुत दुश्वार है
पेश है फिर एक पैग़ाम अम्न का
इक फ़रेबे नौ का फिर आसार है
दर्द पिंहाँ है खुशी की गर्त में
फूल के दामन में जैसे ख़ार है
उनको भी मिलता है फल ऐमाल का
तेरी रहमत से जिन्हें इंकार है
वक़्त वो देखा है आंखों ने जिसे
सोचकर भी देखना दुश्वार है
आदमी ऐ काश रहता आदमी
इंसां होना तो बहुत दुश्वार है
जो दिलों को बांट दे मज़हब नहीं
वो दिलों के बीच की दीवार है
मांगने से मौत भी मिलती नहीं
ज़िन्दगी का रास्ता दुश्वार है।