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दर्दो ग़म से मुलाक़ात होती रही / रंजना वर्मा

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दर्दो ग़म से मुलाकात होती रही
बिन घटा के भी बरसात होती रही

डर दिखाते रहे हिज्र का वो हमें
वस्ल की रोज़ सौगात होती रही

दर्द हैं क्यों मयस्सर हुए इश्क में
इस तरह जैसे खैरात होती रही

है अजब जिंदगी का जुआ क्या कहें
खेल खेले बिना मात होती रही

है न आया कभी सामने सांवरा
ख़्वाब में है मगर बात होती रही

ढल गयी अश्क़ बन आँख से बूँद सी
जिंदगी जैसे आफ़ात होती रही

मौसमों की तरह हम बदलते नहीं
दिन गया रोज़ ही रात होती रही