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दर्द आसूँओ में ढल जाते हैं / प्रदीप शर्मा

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न जाने क्यों यह दिल उदास होता है
न जाने क्यों जज़्बात मचल जाते हैं
लाखों जतन किये हैं मगर
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं।

यह माना कि मोहब्बत के जुबां नहीं होती
पर निगाहों से भी तो यह बयां नहीं होती
मेरे आँसूओ का उन पर कुछ असर नहीं होता
दरिया दर दरिया ये फिसल जाते हैं।
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं।

रात आती है चुनते हुए फूल सपनों के
सुबह होती है परन्तु प्रतिकूल सपनों के
हर सुबह को ही एक नया सूर्यास्त होता है
दिवस मास वर्ष यों निकल जाते हैं।
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं

हर एक पल गुज़रा है नई आस लिये मन की
न जाने कहां ले जायेगी यह प्यास हमें मन की
क्यों आज इतने भोले हम इन्सान हो गये
कि सिर्फ नकली सपनों से बहल जाते हैं।
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं।

क्यों सच्चाई पर झूठ के पैबन्द सीते हैं
ज़ख्.मों पे पर्दे डाले यहां लोग जीते हैं
कैसा अजीब सा इक तमाशा है ज़िन्दगी
रिश्ते बनते हैं बिगड़ते हैं बदल जाते हैं।
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं।

यहां जुबां पे कुछ और दिल में कुछ और होता है
न वफ़ा पे न अरमानों पे कोइ गौर होता है
क्या सोच कर हम आ गये संगतराशों के शहर में
शीशे के दिल तो यहां दिये कुचल जाते हैं।
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं।

न चोरी की न डकैती न कातिल ही बन सके
लोग कहते हैं ये किसी के न काबिल ही बन सके
अनचाहे मेहमान की चर्चा है शहर में
ये आज जाते हैं कि देखें कल जाते हैं।
दर्द यूं ही आँसुओं में ढल जाते हैं