भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दर्द उतना ही मुझे दो / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दर्द उतना ही मुझे दो
गीत बन जाये तड़प हर सांस सहसा।

हूँ नहीं कायर दिखा दूँ पीठ जो मैं
वेदना को, दर्द से आंखें चुराऊँ
है इजाज़त देखना मत शक्ल मेरी
फिर कभी तुम, मैं अगर आंसू बहाऊँ।

आदमी हूँ, चोट खाना जानता हूँ
और सीना भी बहुत मेरा बड़ा है
है न कुछ मुझको शिकायत
रूठ जो मुझसे गया यों हास सहसा।

मानता हूँ प्यार से पीड़ा बड़ी है
और जिसको भी कभी उसने छुआ है
धूल से सोना बना वह, भूल है यह
सोचना भी ग़म किसी की बद्दुआ है।

दर्द ऐसा भी मगर किस काम का है
जो कमर ही तोड़ डाले आदमी की?
यों गिरे बिजली मचल कर
राख हो जाये मधुर मधुमास सहसा।

दर्द देना है तुम्हें? दो! पर न इतना
आंख पथराए, अधर पर मौन छाये
यों लगए दिल ही नहीं है वक्ष में, है-
एक पत्थर, प्राण में जड़ता समाये-

इस तरह तूफ़ान जैसे एक कोई
तोड़ जाता है कलाई हर लहर की
जी रहा हूँ, सांस लेता हूँ
न ढह जाये कहीं विश्वास सहसा।

नयन का मेहमान होना ही पड़ेगा
एक को तो, हो रुदन या मुस्कुराहट
हैं मुझे मंज़ूर दोनों, चाहता हूँ
मैं नहीं पर एक ऐसी छटपटाहट-

शून्यता ही हो महज़ इतिहास जिसका
जिंदगी है चेतना जड़ता नहीं है
चाहता हूँ मैं नहीं मन
जाये बन आकाश का आवास सहसा।

दर्द उतना ही मुझे दो
गीत बन जाये तड़प हर सांस सहसा।