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दर्द का मुहावरा / तुम्हारे लिए, बस / मधुप मोहता
Kavita Kosh से
ओढ़न उतारती हैं, लकीरें,
और लिपट जाती हैं सलेटी परछाइयों में,
एक धुन, झिझकती है, फिर
उसी लय में धड़कती है।
कहीं,
बैठे हुए हम,
एक तूफ़ान की ख़ामोशी
तुम्हारे होंठों पर ठहर जाती है
तुम्हारे हाथ मेरे हाथ मंे
सिमटे।
तुम खोलती हो आँखें और
बिखर जाती हैं परछाइयाँ
अनगिनत रंगों का एक ग़ुबार
बरसता रहता है।
चेतना की सतह पर, लगातार।
एक
ख़ामोशी
दर्द के मुहावरों को
उन्मत्त निबंधों में
समाधि देती रहती है।