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दर्द की कौंद का दिल में मिरे पिंहाँ होना / रमेश तन्हा

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दर्द की कौंद का दिल में मिरे पिंहाँ होना
ऐसे है जैसे कि शोला तह-ए-दामां होना।

तुम मिरे वास्ते हरगिज़ न परेशां होना
मेरी फ़ितरत ही में शामिल नहीं जिन्दां होना।

फैसिले तल्ख़ भी कुछ लेने ही पड़ जाते हैं
ये भी क्या अपने ही साये से हिरासां होना।

तेरे दीदार की चाहत है मेरे ग़म का सबब
तेरा जल्वा है मिरे दर्द का दरमां होना।

आह यूँ धूप का कट जाना मेरी दुनिया से
उफ़ मिरे साये का मुझ से ही गुरेजां होना।

ये भी क्या अपने हसीं ख़्वाब की ताबीर हुई
लुकमा-ए-नान से भी खून का अरजां होना।

मुश्किलें पाटने में जान भी जा सकती है
इतना आसां भी कठिन का नहीं आसां होना।

ग़म के मारों को भी कुछ और ही कर देता है
दरमियाँ कांटों के भी फूल का खन्दां होना।

मसअले ज़ीस्त के पैदा हुए सब 'होने' से
रह गया होके फ़क़त बारे-रगे-जां होना।

शहर का पहला सफ़र याद है अब तक मुझको
हर नई चीज़ को वो देख के हैरां होना।

राहत-जां तो कभी रोग भी बन जाता है
कुछ न हो पाना मगर होने का इम्कां होना।

ऐसे भी लोग हैं क्या दुख भरी इस दुनिया में
जिनकी तक़दीर में है शादां-ओ-फरहां होना।

ऐसा क्या देख लिया दहर में तूने 'तन्हा'
तुझको देता है सुनाई जो ग़ज़ल-ख़्वां होना।