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दर्द के क़िस्सों की ख़ातिर वक़्त किसके पास है / मधुप मोहता
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दर्द के क़िस्सों की ख़ातिर वक़्त किसके पास है
ये मेरी आवाज़ की आवारग़ी का शहर है
फिर कोई लाचार सपना ढूँढता है घर यहाँ
ये ख़ुदा की बेबसी, बेचारग़ी का शहर है
कुछ ना पूछो कब, कहाँ, क्यों, कौन, कैसे
ये शहर ख़ामोशियों की बानगी का शहर है
रोशनी मिलती है किश्तों में, किराये पर हवा
ये झिलमिलाती जगमगाती, तीरगी का शहर है
जश्न है हर क़त्ल, बिकती शराफ़त, बचपन, हया
ये मुस्कुराती, मौत जैसी ज़िंन्दगी का शहर है
अब फ़ासलों से मिलनसारी का सलीक़ा सीखिए
ये हसीन जल्वों की नंगी सादग़ी का शहर है
चप्पलें फटकारते ग़ालिब यहाँ घूमा किए
ये मैक़दों पर तरस खाती तिश्नगी का शहर है
दिल लगा लो बस, यहाँ पर बस ना जाना
दिल्ली नहीं है दोस्त, ये दिल्लगी का शहर है