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दर्द के कारवाँ गुज़रते रहे / जयप्रकाश त्रिपाठी

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चला था दूर से मंज़िल के लिए,
थक गया वो भी, राह बाक़ी रही।

दर्द के कारवाँ गुज़रते रहे,
खूबसूरत पनाह बाक़ी रही।

कितनी हसरत से सफ़र नापा था,
आरजू ख़ामख़्वाह बाक़ी रही।

रोज़ गुज़रा जुनून की हद से,
फिर भी चाहत अथाह बाक़ी रही।

काश, उसको भी मिल गई होती,
थामने वाली बाँह, बाक़ी रही।

ख़ूब हँसता था, ख़ूब रोता था,
अब ख़यालों में आह बाक़ी रही।