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दर्द के चेहरे बदल जाते हैं क्यूँ / फ़ारूक़ शमीम

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दर्द के चेहरे बदल जाते हैं क्यूँ
मर्सिए नग़मों में ढल जाते हैं क्यूँ

सोच के पैकर नहीं जब मोम के
हाथ आते ही पिघल जाते हैं क्यूँ

जब बिखर जाती है ख़ुशबू ख़्वाब की
नींद के गेसू मचल जाते हैं क्यूँ

झील सी आँखों में मुझ को देख कर
दो दिए चुपके से जल जाते हैं क्यूँ

धूप छूती है बदन को जब ‘शमीम’
बर्फ़ के सूरज पिघल जाते हैं क्यूँ