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दर्द के मारे आँख से बहते- बहते बहकर बनता है / गौरव त्रिवेदी
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दर्द के मारे आँख से बहते- बहते बहकर बनता है,
ऐसे ही थोड़े ना कोई भी दिल पत्थर बनता है,
मंज़िल के मिलने से पहले रोड़े तो मिलते ही हैं,
दीवारें उठती हैं पहले तब ही तो घर बनता है,
शायर वो जो महबूबा सा प्यार करे अपने ग़म से,
ग़म का मारा हर कोई थोड़े ही शायर बनता है,
बाग़ी इक इंसान नहीं है बाग़ी सारी दुनिया है,
जिसको हम बाग़ी कहते हैं हम में रहकर बनता है,
सबकुछ सहना पर चुप रहना, एक तपस्या जीवन भर,
पूरा दिल लगता है तब ये ढाईं आखर बनता है