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दर्द देता रहे कोई रह-रह के / प्रेमरंजन अनिमेष

दर्द देता रहे कोई रह रह के
मैं जलूँ और मुहब्बत महके

इतने सामां न जुटा दिल मेरे
कोई आएगा नहीं फिर कह के

आहों पे लोग यहाँ हँसते हैं
दिल ये हलका नहीं होगा कह के

घर का इक नक़्शा बनाता हर दिन
रात लग जाता हूँ उससे ढह के

टूटी कश्ती-सा कभी आऊँगा
वक्‍़त की धार में शायद बह के

आग पहली जली होगी इनसे
कैसे छूते ही ज़रा लब दहके

पानी भी कितना जलाता 'अनिमेष`
तेरी इन आँखों में देखा रह के