भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दर्द पीता जा रहा मदिरा / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दर्द में चन्दा, करो में जाम है,
गीत सांसों में, महकता धाम है,
चाहता हूँ मैं बहले मन!
भीग जाते हैं मगर लोचन!

जाम रह कर भी न रहता हाथ में,
चाँद रह कर भी न रहता साथ में,
जब अजाने झूम कर मुझ को
देख लेता है कभी दर्पण!
चाहता हूँ मैं कि बहले मन!
भीग जाते हैं मगर लोचन!

चू गया आँसू सुरा में आँख से,
झर गया ज्यों फूल महकी शाख से,
बढ़ गयी-सी और कुछ पीड़ा
बढ़ गया-सा और कुछ क्रन्दन!
चाहता हूँ मैं कि बहले मन!
भीग जाते हैं मगर लोचन!

दब गयी पलकें अजाने भार से,
बंध गये-से होंठ कोमल तार से
दर्द पीता जा रहा मदिरा
और होता जा रहा चेतन!
चाहता हूँ मैं कि बहले मन!
भीग जाते हैं मगर लोचन!