दर्द फिर जागा, पुराना ज़ख्म फिर ताज़ा हुआ
फ़स्ल ए गुल कितने करीब आई है अंदाजा हुआ
सुबह यूँ निकली संवर कर जिस तरह कोई दुल्हन
शबनम आवेज़ा हुई रंग ए शफ़क़ गाज़ा हुआ
हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फन
बंद मुझ पर जब से उसके घर का दरवाज़ा हुआ
रेल की सीटी में कैसे हिज्र की तमहीद थी
उसको रुखसत करके घर लौटे तो अंदाज़ा हुआ