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दर्द विवाहितों का / महेश सन्तोषी

मैं तुम्हारा पति था, फरिश्ता नहीं था,
और फिर पहला पति था, पर, आखि़री भी नहीं था
फिर भी तुम मेरे प्रति बनी रहीं एकनिष्ठ परम्परागत पतिव्रता;
हमारे बीच एक समाज की दी हुई संहिता थी एक विवाहित धर्म की
पर, सबसे ऊपर मन ही मन रची संहिता।

फिर वर्षों हमें रोटियों की मजबूरियाँ बाँधे रहीं
हमारी हथेलियाँ बच्चों की उंगलियाँ थामे रहीं।
हर शाम सामयिक समझौते रहे, हर सुबह सामयिक सन्धियाँ रहीं।
एक-दूसरे के शरीर पर पारस्परिक एकाधिकार की तरह पुरानी पूँजीवादी
और शायद बेमन से, तन जीने की मानसिकताएँ रहीं!

कुछ सवाल उठे तो पर, पूछे नहीं गये, जो पूछे गये अनुत्तरित रहे,
विवाह नाम है स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के एक पवित्र बन्धन का,
क्या हमने इन बन्धनों की अस्मिता का सम्मान किया?
और क्या हमने केवल अपना-अपना अहम् जिया?
और, उसे आत्म-सम्मान का झूठा नाम दिया!

फिर हम ऐसे बन्धन बँधे ही क्यों, जिसेक हम निष्पाप जी नहीं सके?
जिसे हमने अपावन किया, जिसका अपमान किया!