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दर्द सारा उलझनों में खो गया / विजय वाते

दर्द सारा उलझनों में खो गया।
रंग छिप-छिप के कहीं पर सो गया।

इक तो ठहरा भी नहीं जाता कहीं,
और अब चलना भी मुश्किल हो गया।

चाह थी कोई तसल्ली दे, मगर
सब ज़मना चार आँसू रो गया।

सबको खुशियों की फसल दरकार थी,
कौन आया बीज ग़म के बो गया।

रात-दिन जिसके लिये जागा किए,
वो भी आँखे बन्द करके सो गया।