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दर्द है पर किस तरह से / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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दर्द है
पर किस तरह से
चीख़ निकले
होंठ पर लटका हुआ बेजान ताला ।

बिल्लियों ने
रोज़ काटा रास्ते को
बंदिशों ने कामना का तन निचोड़ा,
आँधियों ने
रौंद डाली पौध सारी
गर्दिशों ने आशियाना रोज़ तोड़ा,

नागफनियों ने
विषैली हरकतें की
तक्षकों ने पाँव दोनों दंश डाला ।

रक्षकों ने
ख़ुद हदों को तोड़ करके
संधियाँ कर ली लुटेरे हिंसकों से,
मूर्तियाँ घर की चुराईं
छल कपट से
खंजरों को घोप सीने मालिकों के,

घाव को पहले कुरेदा
उँगलियों से
बाद में फिर सांत्वना का अर्क डाला ।
  
चील-गिद्धों ने
हवा मे गंध पाकर
ले लिए छत बीच अपने हैं बसेरे,
श्वान गलियों में
खड़े हो हेरते हैं
हड्डियों के कब मिले उनको ठठेरे,

श्याम होता जा रहा
आकाश का पट
आचरण इतना हुआ है आज काला ।