भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दर्द / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल तक था जो प्यार आज वह
घायल मन का दर्द बन गया!

चाँद बदलकर आग बन गया,
धीरज का जल झाग बन गया,
मजनू मन वीतराग बन गया,

लैला के सीने के कोई राज
उबलकर सर्द बन गया!

प्यार प्राण को भार लग रहा,
टूटा मन का तार लग रहा,
पूरा जीवन ज्वार लग रहा,

पर्दे में थी लाज, खुला तो
सब का सब बेपर्द बन गया!

राह पुरानी आह बन गई,
चाह जली तो दाह बन गई,
छाँह जलन की राह बन गई,

छिप छिपकर रोया कोई तो
दुनिया भर का गर्द बन गया!