दर्पणों के बीच / शलभ श्रीराम सिंह
दर्पणों के बीच
अपनों को ढूँढ़ता,
प्रतिबिम्बों से बातें करता;
मैं किसी अजनबी शहर में आ गया हूँ !
जहाँ
नल पर नहाती सुबहें
फाइलों पर झुकी दोपहरें
और
खाँसती बीमार रातें
एक पल भी चैन से जीने नहीं देतीं !
जाने कहाँ छूट गई !
छूट गई-
वह धूपवाली एक टुकड़ा बदली : माँ !
ईरानी गुलाब की शाख : पत्नी !
धानी पत्तियों वाली ईख : बहन !
नीम का नौधा पेड़ : भाई !
और
रोशनी-भरा पूरा का पूरा आसमान : पिता !
दर्पणों...की...इस...भीड़...में...सब...के...सब...खो...गए !
प्रतिबिम्बों !
अरे ओ प्रतिबिम्बों !!
क्या तुम में ऐसा कोई नहीं जो इन सब की याद भुला सके !
कुछ नहीं सिर्फ ’दोस्त’ बनकर
मेरे साथ
रह सके! जी सके!! गा सके!!!
कोई तो आगे बढ़कर जवाब देता !
क्या सचमुच तुम में ऐसा कोई नहीं !
सचमुच कोई नहीं......!
सचमुच कोई नहीं...........!
(1963)