दर्पणों में तुझे ढूँढती मैं रही / रुचि चतुर्वेदी
दर्पणों में तुझे ढूँढती मैं रही,
किन्तु था तू हकीकत के आकाश में।
तन की बंशी तुझे गुनगुनाती रही,
तू छूपा था मेरे मन के आवास में।
सारे संसार में मैने ढूँढा तुझे,
और भटकती रही मैं यहाँ से वहाँ,
ये महाकाव्य जीवन का लिखा मगर,
मैं सुनाती तुझे प्रिय बताओ कहाँ।
मैंने हर साँस में तुझको खोजा बहुत,
किन्तु था तू अटल सत्य विश्वास में॥
दर्पणों में ...॥
झूठ के पृष्ठ पर सत्य लिखती रही,
शब्द गीतों में ढलकर रुआसे हुए।
भोर उजली कभी साँझ ना मिल सकी,
रात के हर पहर में कुहासे हुए।
रोयी पतझड़ में गुमसुम गगन देखकर,
आंसुओं ने कहा तू है मधुमास में॥
दर्पणों में ...॥
दो किनारे कभी मिल न पाये मिले,
प्रेम सागर में तृप्ति का जल हो गये,
फिर किसी की प्रतीक्षा रही ही नहीं,
प्रेममय प्राण तुलसी का दल हो गये।
एक आहट भी दस्तक सुनाने लगी,
तुम घुले आह में और आभास में॥
दर्पणों में ...॥