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दर्पण क्यों न मान रहा / शशि पाधा

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यह दर्पण क्यों न मान रहा
मुझे देख के माँ ही जान रहा

तुझ जैसी हूँ पर तू तो नहीं
तेरी छाया हूँ पर, हूँ तो नहीं
यह भेद तो कोई समझे ना
दर्पण भी नादान रहा

कल बगिया में जो डार हिली
क्या तू ही मुझको आन मिली
यह तुलसी बिरवा हुलस–निरख
तुझको ही पहचान रहा

यह आँख मिचौनी ठीक रही
उस पार तू हंसती दीख रही
मैं कब तुझ जैसी हो गई
मुझे खुद भी कुछ अनुमान नहीं