दर्पण पर ही पर्दे डाल दिए / अभिषेक औदिच्य
इस भय से बस कहीं स्वयं से भेंट न हो जाए,
मैंने अपने दर्पण पर ही पर्दे डाल दिए।
ग्लानि अग्नि से मुझे कहीं फिर ताप न हो जाए।
दूर हृदय से कोई अपने आप न हो जाए।
मेरे सजल नयन में कोई रोता मुझे दिखे।
धीरे-धीरे चाँद गगन में घटता मुझे दिखे।
मैंने छत पर कृत्रिम चाँद औ तारे ढाल दिए।
मेरा अंतस बार-बार फिर मुझे न डाँट सके।
क्षोभ कुंडली मारे बैठा मुझे न काट सके।
शेष जमा पूंजी मैं यूँ ही व्यर्थ न व्यय कर दूं।
अंतर्मन को पछतावे के शूलों से भर दूं।
ऐसे जाने कितने अवसर अब तक टाल दिए।
मेरी काया मेरी परछाई से भी कम है।
धैर्य धरा जो मैंने उसका आरोही क्रम है।
आशाओं का सूरज भी अब उगने वाला है।
पौरुष जागा और तिमिर अब हटने वाला है।
मेरी ही छवि ने कुछ ऐसे बिम्ब उछाल दिए।