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दर्पण व्यक्तित्व / रणजीत
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दर्पण व्यक्तित्व हो तुम
मेरी बुलबुल
रस या विष
जो भी तुम्हें मिलता है
उसे ज्यों का त्यों
परावर्तित कर देती हो तुम
नहीं, केवल ज्यों का त्यों नहीं
थोड़ा और बढ़ा कर
सामान्य दर्पण नहीं
एक उन्नतोदर दर्पण हो तुम
स्नेह या निर्वेद
प्रशंसा या आलोचना
जो भी देता हूँ मैं तुम्हें
तुम उसे थोड़ा और फैला कर
थोड़ा और मीठा या तीखा बनाकर
लौटा देती हो मुझे।