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दर्प की धूप / अहिल्या मिश्र

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दर्प की चिलचिलाती धूप में... जल रहा है आदमी
अपने ही जलन में उबल रहा है आदमी।

दसों दिशाएँ व्याप्त हैं,
जलन की सड़ांध से
नाक दबाए चल रहा है आदमी
दर्प की चिलचिलाती धूप में जल रहा है आदमी

अवश इंद्रियाँ तो हो गई हैं
भौतिकता के वश में
स्वार्थ का सुख उठाएँ
पल रहा है आदमी
दर्प की चिलचिलाती धूप में जल रहा है आदमी।

रास्ते में उठने वाली
मनुष्यता की कराह को
ठोकर पै ठोकर लगाते
चल रहा है आदमी
दर्प की चिलचिलाती धूप में
जल रहा है आदमी।

झूठे वादे, असीमित आशा
स्वप्न संचित संसार
अरमानों में डूबा
मचल रहा है आदमी।
दर्प की चिलचिलाती धूप में जल रहा है आदमी।

भाषण / आश्वासन के बाज़ार में
मानव को फुसलाते बहलाते
नेता बनकर छल रहा है आदमी।
दर्प की चिलचिलाती धूप में जल रहा है आदमी।