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दर्शन के प्रतिहार / रामगोपाल 'रुद्र'
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दर्शन के प्रतिहार, नयन निशि-भर जागे!
कितने बन्दी राग खुली आँखों निकले;
मचले पीत पराग, हवा के संग चले;
फड़के जुड़कर पंख, कटे थे जो तम से;
दमका दिशि-अनुराग कि निशि के स्वप्न गले;
हरियाली के हार मयूखों ने माँगे!