दर-ब-दर / लीलाधर मंडलोई
ये शख्स मैं हूं कि सहमा हुआ लम्स
भागता फिरे हूं अपने ही खयालों से गाफिल
स्याह चादर शिकस्त की जो तानता है कोई
दर्द से रौंदा गया दिल किसी थकान में है
रूह की गर्मी है बाकी और मैं चलता हूं
मैं अक्सर रोकता हूं खुद को फना होने से
हैं कुछ दोस्त ऐसे भी कि साया क्या हो?
मैं उनके हाथों की पकड़ और मोहब्बत में
उस एक कोशिश में कि जिधर सूरज है
जल रहा जो दुश्मन के अलावों के भीतर
कोई हंसता हुआ है फिकरा है दिल को छूता हुआ
कामयाबी पे अपनी इठलाके दौड़ता-फिरता
सहमे हुए लोग हैं करते हुए किनाराकशी
देखते हैं मुझे घबराई हुई आंखों से
कोई एक दीवाना है भीड़ में रोता किसको
कांसे के टूटे हुए बर्तन सा कि सुने कोई
बढ़ती बदहवासियों में बेचैन मगर बात लिए
है दर-ब-दर मुझसा और मैं चुप इतना
खुद अपनी आवाजों की शक्ल में टूटा
मैं उसके भीतर हूं और वह चेहरा मेरा
दोनों एक जद में हैं और अंधकार गहरा है