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दलिद्दर / स्वप्निल श्रीवास्तव
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वर्षो से सूप बजाकर दलिद्दर
भगा रही है माँ
यह कहते हुए कि जाओ महराज
कोई दूसरी जगह देखो
लेकिन घाघ दलिद्दर धमक के साथ
अगले साल आ धमकते थे
हमारे साथ कोई रियायत नहीं
करते थे
अमीरों की कोठी में नहीं आते दलिद्दर
जैसे वह उनका दरवाज़ा खटखटाते हैं
वह हमारे घर का रास्ता दिखा देते हैं
माँ पछोरती है अपने दिन कि
कोई अच्छा दिन निकल आए
माँ को पता नहीं कि उसके अच्छे दिन
आदमखोरो ने खा लिए हैं