भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दल बदलू हवाएँ / सीताराम गुप्त
Kavita Kosh से
जो पहले लू बन चलती थीं,
वे अब बर्फीली कहलाएँ।
दल-बदलू हो गई हवाएँ!
सिर्फ हवा क्या, मौसम ने ही
अब तो ऐसा मोड़ लिया है,
दादी जी ने फिर निकालकर
गरम दुशाला ओढ़ लिया है!
सूरज ढलते ही मन कहता-
चल रजाइयों में छिप जाएँ,
कथा-कहानी सुनें, सुनाएँ।
सूरज की नन्हीं-सी बिटिया-
धूप सुबह की चंचल लड़की,
द्वार-द्वार किलकारी भरती
झाँक रही है खिड़की-खिड़की!
बिस्तर छोड़ो, बाहर आओ,
चलो धूप से हाथ मिलाएँ
कर तैयारी शाला जाएँ।
-साभार: पराग, दिसम्बर, 98, पृष्ठ 7