दशमलव / संतोष कुमार चतुर्वेदी
शब्दों की जातीय परंपरा से बाहर रहने वाले
अक्षरों के धर्मलोक में भी तो नहीं आते तुम
तुम्हारा वैसा कोई रूप भी तो नहीं
जिसे देखा करते हैं लोग खयालों में
किसी के सपनों में भी दखल देते
नहीं देखा किसी ने तुम्हें
फिर इस दुनिया में
कैसे बना ली तुमने
ठसक भरी अपनी यह जगह
चलने फिरने या फिर मुँह चिढ़ाने जैसी भंगिमा वाली मात्राओं
परीवा के चाँद जैसे दिखने वाले चंद्रबिंदु
हवा में बेलौस उड़ते धूल कणों जैसे अनुस्वार
या फिर चित्रों जैसी काया वाले शब्दों के बैसाखी की
कोई दरकार नहीं तुम्हें
तुम्हें तुम्हारे रूप में लिखना बेहद आसान है
दुनिया में कहीं भी पहचाना जा सकता है तुम्हें
बिना किसी दिक्कत के
लिपि की सरहद नहीं रोक पाती तुम्हारी धमक
बदल जाती हैं परिभाषाएँ तुम्हारे होने भर से
अंक बदल जाते हैं रुपये पैसे में
चेहरे को निखार देते हो अपनी मौजूदगी से
तुम्हारे होने से ताकत बढ़ जाती है वाम की
बना देते हो तुम सत्ता को भी बौना
हमें नहीं मालूम
किसने खोजा तुम्हें किस जमाने में
लेकिन जिसने भी पहचाना होगा तुम्हें
करीबी रिश्ता कोई जरूर रहा होगा उससे तुम्हारा
अंकों के समूह में
बस एक बार ही आ कर
नया मतलब नई पहचान दे जाते हो उसे
हरदम के लिए
तुम्हारी जगह नहीं बदल पाता
कोई जोड़ घटाव
सुई की नोक जैसी काया भी
हो सकती है अहम
अहसास कराया तुमने ही यह दुनिया को
तुम मिट्टी की तरह ही
अपरिहार्य
अनिवार्य हो दुनिया के लिए
दशमलव