दशरथ-सुत राम / जटाधर दुबे
दशरथ-सुत हे राम ब्रह्म रो रूप तोंहीं छोॅ,
सभे चराचर जगत-अंश में राम तोंहीं छोॅ।
नारायण छोॅ तोंही पिता ई कैसें जानेॅ,
मतुर प्राण छोॅ तोंही राजा दशरथ मानेॅ।
विश्वामित्र ऋषि रो आज्ञा कैसें टलतै,
कोमल तन रो राम, असुर के कैसें मारतै।
तोरो पद-रज पाय शिला भी नारी बनलै,
कहे जटा दशरथ ई कृपा गुरु के मानलै।
देव-शक्ति से युक्त राम छै, कैसें जानबै,
शिव-धनु देलकै तोड़ि कहै छै, हम्में न मानबै।
जनकपुरी से मतुर यहेॅ संदेश जे ऐलै,
पुत्र राम ने सिया-स्वयंवर जीती पारलै।
लायक पिता सुपुत्र वहे रं चिन्ता कैन्हें,
बहुते करलौं राज काज आबे पुत्र निबैहें।
रामराज के पहिनें प्रभु के काज बहुत छै,
साधु-संत रो रक्षा, नाश असुर करना छै।
नारायण छै नाहीं खाली दशरथ-नंदन,
जन के त्राण दिलैतै बनिके असुर-निकंदन।
धर्म-स्थापना करै लेॅ हरि वनवास भी गेलै,
जूठो बैर खाय शबरी के तृप्त भी भेलै।
केवट, वनवासी, जड़, चेतन, वायु, समुंदर,
प्रभु के प्रेम सभै के मिललै एक बराबर।
सांस सांस में सियाराम तोहरे माया छै,
जीवन सकल जहान राम तोहरे छाया छै।
असुर राज फेरु फैलै लागलै हरि फेरु आबोॅ,
नाश अधर्म करै खातिर फेरु शस्त्र उठाबोॅ।
अधम हृदय में भक्ति शक्ति देॅ, भाव-राग देॅ,
अन्त काल में राम-दरश के जटा-भाग्य देॅ।