भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दशरथ बाबा के नामे / अरुण हरलीवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर से,
या भीतर से, कोय
कहलक तोरा
कि अपन एक हाथ में
धइले हऽ जे छेनी,
ओकरा धर दऽ
पहाड़ के छाती पर;
अउ दोसरा हाथ में
धइले हऽ जे हथउड़ा,
छनिया पर मारऽ ओकरा तानके
कि कान के परदा फट जाय अस्मान के...
कि फट जाय छाती
ई राकस पासान के।

रहके मउन, बिल्कुल मउन
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे,
जरूरी हे जउन,
ऊ रस्ता बनावे लगि
ई कठिन देवाल तोड़ दऽ;
गाम से गाम, अदमी से अदमी के जोड़ दऽ।
डरऽ मत,
मरऽ मत;
भले देह अपन छोड़ दऽ।

अजी,
दसरथ, बाता! आज
देखके तोहर काज
ठकमुरकी मार देलक सबके,
कि सकल समाज
दाँत अँगुरी काटे
अउ लजा रहल हे आज
शहंशाह के ताज।

जुग-जुग जिंदा रहत
तोहर छेनी-हथउड़ा के अवाज,
ई अलग बात हे कि कनघटिअइले रहे
ई ढपोरसंखी राज।

बाबा,
मेहनत-मोहब्बत जिंदाबाद!
जिंदाबाद!! जिंदाबाद!!!