भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दश्ते ज़ुल्मत में भी इम्कान को ज़िंदा रखा / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दश्ते ज़ुल्मत में भी इम्कान को ज़िंदा रखा
मेने बातिन में एक इंसान को ज़िंदा रखा

था क़बीले में वही एक दिलावर जिस नें
ढाल सीने पे न ली आन को ज़िंदा रखा

इस क़दर दिल को किया साफ़ के खुद हो गया खाक
आइनों ने मेरी पहचान को ज़िंदा रखा

ताकि वो अमन के मौसम में हमे क़त्ल करे
हम जो कटते रहे सुल्तान को ज़िंदा रखा

सोचता हूँ तो ताजुब मुझे खुद होता है
केसे इस दौर में ईमान को ज़िंदा रखा

वाक़िआ यह है मुज़फ्फर के तेरे लहजे ने
तुझ को मारा तेरे दीवान को ज़िंदा रखा