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दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी / परवीन शाकिर

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दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
सिलवटें रोशनी में उभरेंगी

घर की दीवारें मेरे जाने पर
अपनी तन्हाइयों को सोचेंगी

उँगलियों को तराश दूँ फिर भी
आदतन उस का नाम लिखेंगी

रंग-ओ-बू से कहीं पनाह नहीं
ख़्वाहिशें भी कहाँ अमाँ देंगी

एक ख़ुश्बू से बच भी जाऊँ अगर
दूसरी निकहतें जकड़ लेंगी

खिड़कियों पर दबीज़ पर्दे हों
बारिशें फिर भी दस्तकें देंगी