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दसम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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चिर काल हेतु
आर्यावर्त्तक धरतीसँ
शत्रुक आशंका मुक्तिभार
लै’ छथि ऋषि

चलिते छल नाटक
तखने उच्चस्वरमे
‘हा हन्त! हन्त!!’ ध्वनि
क’ पछिला दर्शक गण

कारुण्य - कण्ठसँ
बाजल - ‘किछु नेनाके
भागल अछि बाँहि मरोड़ि
अपरिचित अरिगण’

‘बरिसौलक अछि किछु ढेप
तथा भागल अछि
दक्षिण - सागर दिस
- से किछु दर्शक बाजल

‘नहि जानि दैत्य अछि
अथवा दस्युक दल अछि
वा अति विक्रान्त -
मनस्थितिमे अछि पागल!

एवं प्रकार -
सभ समाचार सुनि ऋषिवर
मंचपर लपकि क’ -
चढ़ि गेला आ कहलनि:

‘एखन न पूर्ण अछि
भेल हमर जय-गाथा
नाटकके बन्न करू!
ऋषि गर्जन कयलनि

‘अछि उपद्रवीसँ
मुक्त राष्ट्र नहि एखन
कालेय दस्यु दैत्ये
उत्पात करै’ अछि

‘उत्पात मचा क’
कालेयक तस्कर दल
भागै छ तथा सागरमे
नुका रहै’ अछि

‘सम्भव कि सिन्धु-पारक
किछु वैदेशिक बल
प्रेरणा तथा पोषण-
द’ क’ सक्रिय हो

‘ईहो संभव जे
लंकापति रावणके
कालेयक तस्कर दलक
आचरण प्रिय हो

‘जे हो, जा धरि नहि
शत्रु-मुक्त अछि भारत
निश्चिन्त भावसँ
सूतल रहब न सम्भव

‘देशक विकास- पथ
हो नहि जँ निष्कंटक
व्यक्तिगत साधना-सिद्धि
रहैछ असम्भव

‘हिंसाक शमनमे
हिंसा कार्य विहित अछि
आवश्यक अछि -
कायेलक दलके मारब

अनिवार्य भेल अछि
कालेयक हत्या आ
दुष्टता - दंशसँ
भारतके उद्धारब

‘विजये नहि तँ
विजयोत्सव ककर मनायब?
मालाक समय नहि ई,
कृपाण चाहै’ छी

‘समयक सागरके मथि
भविष्य - घृत आनब
ऋत अछि हे जन-गण!
अहँक शक्ति थाहै’ छी

‘मंत्रक बलसँ
क्षणमे कालेयक हत्या
हम क’ सकैत छी -
वायु वाण संधानत

‘अछि कत’ नुकायल
शत्रु विश्व भरिमे -
रवि - चन्द्र - रश्मि
बाजत आ अनुसंधानत

‘अछि प्रश्न मुदा
की एक व्यक्ति जीवित रहि
सभ दिनक राष्ट्रक रक्षाक
भार ढो सकतै?

‘मानव छी -
देहे अमर रहब नहि सम्भव
जागत समाज, तखने
भविष्य बनि सकतै’

‘एक टा व्यक्ति
कतबो बलशाली भेने
राष्ट्रक प्रतिनिधि नहि
रहि सकै छ युग-युगधरि

‘ जँ वर्तमान जागत
तखने इतिहासो
गर्वक अनुभव क’ सकत
प्रकाशित रहि-रहि

ते बाजू, हाथ उठाउ
राष्ट्र - रक्षामे
के सभ बलिदानक हेतु
स्वतः तत्पर छी?

‘देशक सीमा
जँ धनुर्यज्ञ चाहै’ अछि
के सभ बलि-वेदी हेतु
हमर अनुचर छी?’

ऋषिकेर प्रश्न
जादूक तीर बनि बरिसल
उठि गेल सभक कर
बाजल सभ: ‘छी तत्पर

‘आदेश दिय
राष्ट्रक रक्षामे हम सभ
सर्वस्व - त्यागमे-
हिचकब नहि हे ऋषिवर!

नेता छी अहँ
नेतृत्व दिय’ जनताके
हम जनता छी, जागब
मृत्युक भय त्यागब

‘जीवित राष्ट्रक
जीवित जन-गण छी, ते हम
जीवित नेतृत्वक इंगितिपर
रण ठानब

‘आगाँ अहँ बढ़
बढ़ब हम पाछाँ-पाछाँ
हे नेता! जनता -
सामूहिक स्वर दै’ अछि

‘दक्षिणक संग
उत्तरो देत, से देखू,
उत्तर भारतसँ
झुंडक झुंड अबै अछि’

देखल ऋषि, सरिपहुँ
झुंडक झुंड अबै’ छल
जनता - जनार्दनक दल
उत्तर भारतसँ

अनुभव कयलनि जे
जँ नेता सक्षम हो
विश्वक कोनो नहि शक्ति
पैघ भारतसँ

लोपाक संग ऋषिवर
अगस्त्य बढ़ि गेल
बाजलि लोपा -
‘रणचण्डी महिले बनती

समरांगणमे पुरुषत्व
तथा क्लीबत्वक
व्यवहार - प्रमाणित
प्रति परिचितिके गनती’

आगाँ ऋषि, पाछाँ
छल सुसज्ज जन-सेना
छल भेल समन्वित
शास्त्र-शस्त्र, विद्या-बल

अन्तिम शत्रुक
संहार यज्ञमे राष्ट्रक
सम्पूर्ण शक्ति
सागर-तटपर छल पहुँचल

देखल ऋषि पार-दृष्टिसँ
जे सागरमे
अगणित मानव-द्रोही
राक्षस अछि शरणित

सम्बोधित कयलनि
जन-सेनाके ऋषिवर
कयलनि रण-नीति
प्रसारित एवं वर्णित

पढ़लनि आग्नेय मंत्र
सागरके पीलनि
ऋषिवर अगस्त्य
चूरूमे; सागर सूखल

अति दूर-दूर धरि
जन-विहीन सागरमे
जलचर राक्षस-दल
हत-प्रभ छल, से सूझल

जन - गण टूटल
जनु बाण धनुषसँ छूटल
मारल गेलै’ कालेय
मरल तस्कर-दल

किछु भागि गेल पाताल
शेष राक्षस-दल
भ’ गेल काल-कवलित
जन - बल छल जागल

प्रकटित छल
लंकाधरि बढ़बाक मनोबल
कयलनि ऋषि शान्त -
उग्र जन बलके; कहलनि;

‘ई काज राम करताह
प्रयोजन पड़ने’
सम्प्रति अछि कूटनीति
बाधक, से लगलनि

विजयोल्लासक
मुद्रामे छल जन-सेना
तैयो छल चकित
अगस्त्यक जल-शोषणसँ

सागरके पीबि
पचा लेलक अछि मानव?
ई पृश्य लुप्त नहि
होइत छल लोचनसँ

बाजलि लोपा -
‘जल हीन मीन तड़पै’ अछि
निर्दोष सलिल - चर
कानि रहल अछि ऋषिवर!’

लगलनि ऋषिके
जे वरुणदेव चाहै’ छथि
राक्षस - संहारित सागरमे
सलिलक स्वर

अछि सिन्धु
राष्ट्र - रक्षाक हेतु आवश्यक
से मानि अगस्त्य
सलिल-आवाहन कयलनि

गति अयलै’ गंगामे
नभमे घन उमड़ल
ऋषिवर अगस्त्य पुनि
सजल सिन्धुके कयलनि

साष्टाँग प्रणामक
मुद्रामे जन - सेना
लोटल धरतीपर
भ’ ऋषिवरसँ उपकृत

नभसँ बरिसल जल-पुष्प
अगस्त्यक पद - पर
धरतीक कीर्तिसँ
अम्बर भेल चमत्कृत