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दसवाँ पुष्प / कवि मारुत लोक में / आदर्श

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अग्नि देव, आशीर्वाद प्राप्त कर
उनके समीप से
कवि जब कुछ दूर आ गया
आरूढ़ होकर
तेजस्वी यान में
लौट चलने की बात
आयी तब मन में।

ज्वालामुखी पर्वत का
विमान यह
मेरी आगे की यात्रा
के लायक नहीं हो सकेगा
इसलिए, भूतल की ओर ही
गमन हो।

चला कुछ दूर यान,
परिस्थिति परिवर्तित
होने लगी चारों ओर
तपन की अधिकता में
कमी हुई क्रमशः
अनुभव होने लगा
उसको सुख छिपा हुआ
जान सकता है जिसे
वही जो कि
कड़ी धूप, लू की आग
झेल कर
पाये घने पड़ों की
ठंडी छांह सहसा।

झोंका एक आया
मनमोहक सुगंध का
यान के झरोखे से
झांक कर देखा
एक रमणी
नव यौवन उन्माद से
फूली हुई माधवी लता सी
खड़ी
लगी हुई
बौरे आम पेड़ से।

कौन यह मुग्धा है?
जान क्यों न लूं यह
विमान थोड़ा रोक कर-
सोचा यह कवि ने
ओर वहीं पास ही
उतार दिया यान को।

बाला वह देख कर
यान को उतरते
उसकी ओर आकर्षित हो गयी, और
चल पड़ी
उसी ओर को
जानने के लिए
यह कैसा यान? और
यहां क्यों यह उतरता है?

तब तक विमान नीचे
आकर के ठहरा
तब तक वह युवती
सुगंध की सुघरता की
सरिता में स्नान कर
निकली सी,
यान पास पहुँची!

किया प्रश्न उसने-
कौन तुम अग्नि लोक के
महान देवता से
आये इस देश में?
कारण है कोई,
कठिनाई कुछ आ गयी है
जिससे विमान यहां
रोकने की लाचारी
हुई है तुमको।

या
इस देश के निवासियों को
अपनी कृपा से
आभारी करने के लिए
आपने कुछ देर
विश्राम करने का
विचार यहां है किया?
कुछ भी
सहायता मैं कर पाऊं आप की
तो अपने को बड़ी
सौभाग्यशाली मानूंगी।

उत्तर में कवि ने कहा-
”देवि, मैं हूँ
मानवों का कवि और
घूम रहा हूँ
साधनों की खोज में, जिससे
मानवों का लोक
सुख शान्तिपूर्ण हो।

फूलों के देश में
पहले गया था मैं,
संदेश लेने को
किन्तु वहां
कमजोरी विजय हुई
बेवसी में
हो गया प्रसाद भारी
जिसके परिणाम में
सिर पर अभिशाप लिया
उससे उद्धार पाने और
असली जो कार्य था,
उसकी भी सफलता के लिए
पहले गया वरुण लोक
और अब अग्नि लोक होकर के
आ रहा हूँ।

नहीं है विमान में
कहीं भी खराबी कोई
बस देख कर आप को ही
उसे रोक उतरा हूँ
अब मुझे
मारुत लोक को जाना है।

मुझे यह जान पड़ा
आप से मिलेगी कुछ
मुझको सहायता।
क्षमा यदि ध्रष्टता हो,
मैं बड़ा कृतज्ञ हूँगा
यदि कृपा करके
बतायें मुझे
शुभ नाम अपना।

युवती के पतले से
लाल लाल होठों पर
झलकी एक
हलकी सी
मंद मुसकराहट,
जिससे दिखलायी पड़े
दाड़िम के दाने से
दाँत कई।
फैल गयी अनायास
छवि भरी, शांति भरी
चांदनी सी सुन्दर।

बोली वह-
मेरा देश,
मेरा क्षेत्र
यहाँ से आरम्भ होता
नीचे का रास्ता
मैं दिखा सकूँगी आपको।
किन्तु मेरा
ऊपर प्रवेश है नहीं।

लेकर के आपको
नीचे चल सकती हूँ
और वहीं
आपको
मिलेगा वह साधन भी
जिसकी सहायता से
मारुत लोक को
आप पहुँच जायेंगे।

यदि ठीक समझें तो
मौका दीजिए
बनूँ मैं सहयोगिनी।
पूछते हैं नाम मेरा,
वाणी पुत्र।
मुझे कहते हैं हवा।

बातें सुन हवा की
प्रसन्न हुआ कवि और
बोला फिर
”देवि, वह
साधन है कौन
कामयाब जो करेगा मुझे?”

उत्तर में बोली हवा-
”मारुत के पुत्र
वीर हनुमान के पास मैं
ले चलूँगी आपको।

हनुमान की गदा में
शक्ति ऐसी है भरी
हनुमान द्वारा जब
फेंकी वह जाती है
ठीक पास मारुत के
गति होती उसकी।

वही गदा मारुत भी
फेंकते हैं,
और हनुमान पास
सीधी वह
बिना विघ्न चली आती है।
स्वीकार यह साधन हो
तो चली चलूँगी मैं
साथ साथ आपके।

कवि ने प्रसन्न होकर कहा-
देवि, मंजूर यह मुझको है,
यही नहीं,
सहयोग पाकर यह आप से
आभार मानता रहूँगा
हमेशा जीवन में।

आइए विमान में,
साधक की साधना के
फल के समान ही
मुझको कृपा कर के
बाधित बनाइए।

कवि के साथ
बैठी हवा
और फिर शीघ्र ही
गति शील हो गया
विमान वह।

सरिता में उठती
सुंदर लहरों की भांति
कमल के फूल
खिले तालाब बीच,
जिन पर रस लेने को
मंडराते भौंरों की भीड़ लगी।

मधुमास स्वागत में
कोयल की कूक
बौरे आमों की डालियों
का मौन होकर और कभी
हिल हिल कर
पागल बनाने वाली
महक की मादकता
चांचर मचाना
पक्षियों का घोंसलों के बीच
सहज ही कम्पित
जो कभी-कभी होते थे-
इन सबकी ओर ध्यान
कविवर का खींच कर
उसका मनोरंजन
कराहती हुई
वह चली।

कहीं अरुणोदय का
आगमन जान कर
तारे भगे जा रहे थे,
कुम्हला रहे थे फूल
कुई के
कहीं दृश्य संध्या का
दिखलायी पड़ा
ऊँचे पहाड़ों के
सिर पर सोने का
मुकुट पहनाता हुआ
आधी घड़ी ही में जो
न जाने कहाँ चला गया
देकर अँधेरा घोर!

उसको ही नहीं
कमलों को, भ्रमरों को
और चक्रवाक मंडल को-
कवि को दिखला कर सब
उसके रिक्त मानस में
आनंद संचार करती ही
वह चली।

कुछ समय बीतने पर
पहुँचा विमान
जहाँ ज्वालामुखी पर्वत ने
उसको उड़ाया था।
सारा समाचार सुना कर
पर्वत को, बारम्बार
धन्यवाद दे करके उसको
कवि साथ हवा के
पहुँचा हनुमान के
निवास पास
जो वहाँ से बहुत करीब
देख पड़ता था।

दरवाजे तक पहुँचा कर
बोली वह, हनुमान ब्रह्मचारी
योगी और त्यागी हैं
लेकर रूप यह
जाऊँगी नहीं मैं कभी
देव! आगे उनके।

आप जाकर सविनय
अपना मनोरथ कहिए,
वे दयालु आप पूरा
करने लग जायेंगे।“
यह कह करके हवा ने
विदा मांग ली
कवि से।

मन की सब शक्तियों को
कवि ने जगाया
और थेड़ी देर में
श्री हनुमान सामने
स्वयं को किया प्रस्तुत।

जागे थे अभी ही हनुमान
योगनिद्रा से
देख कर कवि को
बोले, ”तुम कौन?
यहाँ मेरे पास आये क्यों?

”देव मैं तो सेवक हूँ,
मानवों का कवि
मुझे यात्रा करनी है
अब श्री मारुन के लोक की।

वरुण लोक,
अग्निलोक भ्रमण कर
आ रहा हूँ,
साधन नहीं है
मेरे पास कुछ
मारुत लोक बीच जाने का।
इसीलिए आया हूँ शरण में
मेरे लिए आप ही
निकाल दें उपाय कोई समुचित।“

”हे कवि!
तुमने कठोर तप ठाना है,
तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ।
लक्षण तुम्हारे चेहरे का
मैं देखकर समझता हूँ,
जीवन में पानी
और आग की
अभिन्नता को
तुमने पहचाना है।

जैसे पानी और आग
एक तत्व से बने हैं
वैसे ही
आग और मारुत में
अन्तर नहीं है कुछ
इसको भी तुम्हें
जान लेना है;

आगे जब और कुछ
अनुभव पा जाओगे,
तुममें विकास
पूरी मानवता पायेगी
उद्यमी जो ऐसा है
उसकी सहायता
करूँगा यदि मैं नहीं
हानि होगी धर्म की
धरती पर सत्य का
नाम फिर कौन लेगा?

अच्छा अब आओ
बैठ जाओ मेरी गदा पर
वाण ही की तरह तुम
पूज्य पिताजी के पास
पहुंचोगे और
तुम्हें देख कर
बैठे मेरी गदा पर
जान तुम्हें मेरा भक्त
तुमको वे मान देंगे।“

हनुमान वाणी सुन
गदा पर आसन निज
कविवर ने लगाया
और महावीर ने
फेंका उसे वेग साथ
मारुत के लोक को।

मारुत के पास वह
गदा ठीक पहुँची
और साथ उसके ही
कवि ने प्रवेश पाया
मारुत के कक्ष में,
और शीघ्र
मारुत के सामने।

मारुत ने गदा साथ
आये हुए कवि को जब देखा
विस्मित वे बहुत हुए
क्योंकि ऐसी बात
कभी देखी नहीं गयी थी।

कभी कोई मानव
इस ढंग से
पहुँचा नहीं था
पास उनके।

समझ कर आगंतुक को
प्रिय सुत का प्यारा भक्त
प्रेम का संचार हुआ
उनके हृदय में।
प्रेम भरी वाणी में बोले वे-
‘प्रियवर! यह जानता हूँ
भक्त हनुमान के हो
मेरे प्रेम के भी
अधिकारी हुए
तुम इस सम्बन्ध से।

जानना मुझे है अब
तुम किस कार्य से
साधना अपार कर
मेरे पास आये हो?

कौन कार्य ऐसा था
हनुमान द्वारा भी
पूरा जो न हो सका
आना पड़ा
मुसीबत भरी यात्रा कर।“
आश्वासित होकर तब
बोला कवि
”देव, कवि हूँ मैं,
नर लोक में निवास मेरा।

मानवों में फैली देख
घातक विषमता
पंचशील भावना का
असली रूप
देखने को
पहले पुष्प नगर में गया,
वहाँ अभिशाप हुआ
उसके बाद
वरुण लोक, अग्नि लोक में
अनेक ज्ञान तत्व
लेकर अब आया हूँ मैं
आप की शरण में।

आप के आदेशों को
सुनना है,
कहना है, मानवों के लोक में
पांव तोड़ बैठी हुई
दुर्दशा का हाल कुछ
प्रभु का आदेश हो तो
आवेदन करूँ मैं।

”हां, हां, कहो सुनूँगा मैं
जो कुछ सुनाओगे।
मारुत की उच्च स्वर
वाणी सुन
कवि ने आरम्भ किया-
”देव! आप चाहते हैं
पूर्णता का रूप
अधिकाधिक
विकसित हो
विश्व बीच।

किन्तु जो अधीन
अधिकारी हैं आप के
फैला रहे हैं
उलटी ही बात
मानवों के लोक में।
कभी वे करते हैं
पक्ष अग्निदेव का
और कभी वरुण का,
यों ही बढ़ाते चलते हैं रोग
प्रजा बीच,
कम आयु पाकर जो
मरते हैं,
निष्फलता देकर जो
प्रकृति के विधान को।

आप गति शील हैं और
चाहते हैं सारा
विश्व गति शील हो,
मानव प्रगति करे
यह भी आप चाहते हैं।

तो फिर
व्यवस्था आप ऐसी करें
अग्नि और वरुण देव के
तमाम झगड़ों का
होवे खातमा
मानव यह मान सके
दोनों तत्व एक हैं
और दोनों आप के आधीन हैं।

कहीं यह संशय न
हो जावे आपकी
वरुण और अग्नि का
विरोध मुझे करना है;
नहीं, उनके ही कृपा से तो
मैं यहाँ आया हूँ।

सच बात यह जान पड़ती है,
ऊपर की गति में
नहीं कहीं भेद है
किन्तु नीचे शाखाएँ
फूट कर
अपना मन माना प्रचार किया करती हैं
और वही नहीं होता
आप को जो प्रिय है।“

कवि के निवेदन को
मारुतेश्वर ने
बड़े ध्यान से सुना।
और तब मुसकाते हुए
बोले मिठास भरी वाणी में-

हे कवि! कही जो बात तुमने
वह है यथार्थ
किन्तु तुम कविता की बात
कुछ भूले से जा रहे हो।

जब तक तना है पेड़
तब तक वह एक है
डालियों के फूटने पर
वही फैल जाता है
अनेकता को
चारों ओर
जहाँ तक फैल सके
फैला देने के लिए
किन्तु उन्हीं डालियों में
लगता जब फल है
वही गिर नीचे आता
और सैकड़ों ही
पौधों को फिर उगाता है।

विश्व में अनेकता जो
फैली तुम देखते हो
उसमें बुराई कहीं है नहीं
यह जान लो

और यह सत्य है कि
उसकी भी एक सीमा है
डालियाँ भी सीमित
रहेंगी निज पेड़ से।

फिर भी कहता हूँ
मैं तुमसे प्रसन्न हूँ कि
तुमको बुराई दिखी,
एकता की प्यास जगा
और खली बढ़ती अनेकता।

यही तो वह शुभ लक्षण है
जिससे हम जानेंगे कि
डालियों में फल लगने में
कितनी अब देर है?

दुश्मन पर बाण हम फेकते हैं
चाहते हैं,
उसके कलेजे में वह गड़े
किन्तु चाहते हैं हम यह भी कि
काम पूरा करके
वह लौट आवे तरकस में।

भेद भाव पैदा कर
सृष्टि को बनाते हम,
फिर भी चाहते हैं यह
भेद भाव दूर हो
सृष्टि चकनाचूर हो।

इसीलिए तुमको
सांत्वना दे रहा हूँ मैं
जाओ, अब
शासन बढ़ेगा उन लोगों पर
एकता मिटाते
जो अनेकता बढ़ाते हैं!

आग और पानी का
भेद दिखा दिखा कर
कभी पक्ष आग का ले
और कभी पानी का
मेरे कर्मचारी
जो विषमता बढ़ाते हैं
उसका खातमा
बड़े वेग से तो नहीं,
किन्तु धीमी गति से
अवश्य होगा अब।

सत्य और न्याय का
प्रेम का, उदारता का
गला घोंटा जा रहा था
जहाँ जहाँ विश्व में
वहाँ वहाँ अब
झूठ, बेईमानी, अन्याय आदि को
दंडित करेंगे हम
पंचशील का प्रचार
तुमको अभीष्ट है तो
उसको भी हमसे
मदद काफी मिलेगी अब।

जाओ, दिलासा दो मानव को
शांति का पदार्पण
अब हमको अभीष्ट है
आवेगी स्थिरता
अब मानव के जीवन में
पायेंगी सफलता अब
साधनाएँ, कामनाएँ उसकी।

पंचशील को सभी युगों में
और सभी देशों में विश्व के
मिलता रहा है सम्मान
लेकिन अब देंगे हम
आदर उसे विशेष
चोरों की, डाकुओं लुटेरों की
ताकत अब बढ़ने नहीं देंगे हम।

एक ही पोशाक पहने
भले और बुरे लोग
अभी पहचाने नहीं जाते थे
किन्तु अब ऐसी पहचान
मिल सकेगी मानव को
वह जान लेगा
कौन ठग और कौन सज्जन है।

हाँ, अब बताओ
तुम जाओगे कहाँ?
मानवों के लोक को? था कि
अभी और कहीं जाना है?
जहाँ कहीं इच्छा हो
तुम्हें भेज दूँगा मैं
मेरी मति विश्व में है
एक-एक कोने में।

श्री मारुत के उपदेश से
कवि को संतोष मिला
बोला वह-
”देव, जब आप को
कृपा मिली है मुझको
क्यों न मेरा मार्ग होगा
सुविधामय, सुखमय?

एक ही जगह अब
जाना मुझे बाकी है-
मूल तत्व ब्रह्म जिन्हें
कुछ लोग शून्य और
कुछ लोग विष्णु बतलाते हैं।
आप की कृपा से
वहाँ तक पहुँचू तो
मेरा कार्य सिद्ध हो।“

मारुत ने कवि का
निवेदन स्वीकार किया
देकर आदेश
मंगा लिया वह दिव्य यान
पुष्पक विमान जिसे कहते।

श्री मारुतेश्वर को
कर के प्रणाम
कवि बैठ गया उसमें।
यान जब उड़ने को हो गया
मारुत ने कवि से
फिर यों कहा-

”देखो जब काम
पूरा हो ले तुम्हारा सब,
तब इसे मेरे पास ही भेज देना
संचालक के बिना ही
आप यह यहाँ चला आवेगा।

जाओ, वत्स।
जगत में सुख का
विस्तार करो।
”जैसी प्रभु आज्ञा“
कवि ने प्रणाम किया फिर फिर।
पुष्पक विमान शीघ्र
नभ गामी हो गया।