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दस्तकें हैं दे रहीं भीगी हवाएँ / कुमार रवींद्र
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द्वार खोलो
दस्तकें हैं दे रहीं भीगी हवाएँ
अभी जो बौछार आई
लिख गई वह मेह-पाती
उधर देखो कौंध बिजुरी की
हुई आकाश-बाती
दमक में उसकी
छिपी हैं किसी बिछुड़न की व्यथाएँ
नागचंपा हँस रहा है
खूब जी भर वह नहाया
किसी मछुए ने उमगकर
रागबरखा अभी गाया
घाट पर बैठा
भिखारी दे रहा सबको दुआएँ
पाँत बगुलों की
अभी जो गई उड़कर
उसे दिखता दूर से
जलभरा पोखर
उसी पोखर में
नहाकर आईं हैं सारी दिशाएँ