दस्तक में तब्दील होते लोग / गोबिन्द प्रसाद
यह उनके तन की ग़लीज़ चादर ही थी
जो किसी मैले-कुचैले कपड़े से ज़्यादा बदतर रह सकती थी
वे पागल नहीं थे
कहते हैं प्रेम की बेहद संकरी गली में क़ैद होकर
रह गया था उनका जीवन
ज़माने की सितमगरी ने इस हालत में ला दिया था
कि उन्हें देखकर लोग पागल ज़रूर हो सकते थे
हँसते-बोलते आदमी की जीभ तालू से चिपक जाती थी
उन्हें देखकर अक्सर रास्ते बदल ही लेते थे लोग
चलते-चलते वो अचानक ठहर जाते थे
और टोपीवाले लोगों को देखकर अकसर वे बिखरने लगते
खड़े रहते देर तक बिना हिले किसी मूर्ति की तरह
अचानक लगता जैसे मूर्ति की रगों में तैरने लगा रक्तरंजित इतिहास
फ़िर लड़ीदार भद्दी गालियों से ज़ुल्म का इतिहास हवा में लहराता
और नथुने और नसें और कनपटियाँ फड़कने लगतीं उभरकर
अचानक उनकी आँखें बलने लगतीं
और सर से पाँव तक उनका बदन धुएँ से भरी इमारतनुमा हो जाता
वे अपनी लपटों में आप ही झुलसते थे किसी ककनुस की तरह
फिर मानो किसी ग़ार से निकल नये चोले में कोई दूसरा
किसी साये की तरह अदृश्य हो जाता
आधी रात के बाद वो अक्सर किसी दस्तक में त्ब्दील हो जाते थे