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दस्तक / अनिल गंगल

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वह आ रहा है

जब सुनाई देने लगी थी दूर से उसकी पदचापों की आहट
तुम निश्चिन्त थे कि यह महज़ एक अफ़वाह है
और अफ़वाहों के न सिर होता है, न पाँव
इसलिए नहीं किया जाना चाहिए उसके आने पर यक़ीन

जब पहली-पहली बार दिखाई दिया था
उपजाऊ ज़मीन पर पड़ा उसका बीज
तुमने देखते हुए भी किया उसे अनदेखा

'इतने से तो हो तुम, एक बिन्दी से भी छोटे
चाहो, तो भी क्या बिगाड़ लोगे तुम मेरा'—
उपेक्षा से कहा था तुमने

एक दिन उसकी ओर संकेत कर
किया गया था तुम्हें सावधान
कि देखो
जिसे तुम समझते आए अभी तक नाचीज़ —
फूट आया है अब वह अँखुआ बन धरती से बाहर

सावधान करने वाली उँगली को तुमने कहा था
किसी सिरफ़िरे की उँगली

तुमने कहा था —
यहाँ की मिट्टी नहीं है इटली, जर्मनी, जापान या स्पेन की
मिट्टी की तरह मुफ़ीद
इस तरह के किसी भी ज़हरीले अँखुए के फूटने के लिए

मगर दूसरी तरफ़ तुम सींचते रहे अँखुए को
क़िस्म-क़िस्म के खाद-पानी से
तुम्हें लगता था
कि एक दिन अँखुआ जब वृक्ष बन जाएगा
तो इन्द्रधनुषी फूलों और मीठे फलों की शक़्ल में
दमकेंगे उस पर वसन्त के वस्त्र

अब अँखुआ नहीं रहा अँखुआ
रंगबिरंगी झण्डियों, टोपियों और अंगवस्त्रमों के बीच
वह बदलता जा रहा है कँटीले वृक्ष में
जिससे झड़ने लगे हैं यहाँ-वहाँ ज़हरबुझे फल

नहीं बची उसके आने की अब सिर्फ़ आहट भर
वह आ चुका है आपके चौमहलों की दहलीज़ पर
दरवाज़े पर सुनाई देने लगी है साफ़-साफ़ उसकी दस्तक
जिसे सुनने के लिए तुम्हारे कान अभी तक तैयार नहीं।