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दस्तक / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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मैं अध - गिरे सुखों के घर में,
लेटा था अपने बिस्तर पर ।
कविताओं में पीड़ा बुनता,
धुंधले भावी की चिंता कर ११

"आन मरा यह कौन इस समय ?"
मन में ऐसी झुंझलाहट भर ।
ध्यान खटखटाने की आहट
सुन , कपाट खोले उठ जाकर ।।

दोपहरी की किरण चिनगियाँ ,
बंद कक्ष में घुस आईं थीं ।
जिन्हें देखते ही सहसा ही ,
मेरी आँखें चुन्धियाईं थीं ।।

अर्द्ध- संकुचित फिर नयनों को ,
धूप सामने खोला भरसक ।
देखा एक सांवली - दुबली ,
खड़ी द्वार , चल आई दस्तक ।।

धनिकों के उतरे कपड़ों के ,
चिथड़ों को वह पहन खड़ी थी ।
अस्त - व्यस्त उखड़ी - बिखरी ज्यों ,
निर्धनता की बहन बड़ी थी ।।

धूल- भरे उसके पद नंगे ,
रुकते - रुकते द्वार रुके थे ।
विफल घरों पर काम मांग कर ,
जाने कितनी बाट थके थे ११

मिला सका ना मेरा साहस ,
दस्तक की आखों से आँखों ।
विश्व जला देना चाहें जो ,
ऐसी थीं जलती वे आखें ।।

ज्वालमुखी उस चितवन सम्मुख ,
अगर कहीं पड़ जाता ईश्वर ।
वहीं भस्म की ढेरी होता ,
निश्चय ही तत्पल वह जलकर ।।

मेरी दीन विवशता ने झट ,
नमित दृष्टि से द्वार बंद कर ।
सांस मुक्ति की ली विमुक्ति हो ,
शीतल सुख के निज बिस्तर पर॥

परन्तु उसकी दो आँखें वे
सम्मुख हो साकार खड़ी थीं ।
मनश्चक्षुओं में अति गहरे ,
दग्ध सलाखों - तुल्य गड़ी थीं ।।

और अचानक मैंने पाया ,
तपन बढ़ रही स्थिर आन्तर में ।
लाख बचाने पर भी आँखें ,
भयकर आग लग गई उर में ।।

जिसकी लपटें घेर रहेंगी ,
ब्रह्मा के ब्रह्मांड निखिल को ।
कौन बचा पायेगा कोई ,
कैसे अब निज हृदय, विमुख हो ??

(अग्निजा , १९७८)