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दस्तक / सुनीता जैन

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क्या तुम भी किन्हीं अँधेरी
खंदकों में डूबने लगते हो
जब अपनी आवाज सुनाई नहीं देती?
और शब्द, किसी जादुई
सुबह में एक साथ बालते पक्षियों-सा,
अपने पंख नहीं खोलते?

क्या तुम्हें भी लगता है कि
जीवन मुँह तक ढाँपी रजाई-सा
छोटा और दमघोट हो गया है,
कि मन, मन-मन-भर का हो चला है
उस गाड़ी-सा जिसके
पहिए में कील हो?

क्या तुम भी बेचैन होते हो
यह सोचकर कि
कहीं भी कोई ऐसा क्यों नहीं
जिसे कह सकते यह सब,
या जो बिन कहे ही
समझ लेता तुम्हारे स्वर का रुँधापन?

और जब द्वार पर दस्तक होती
तो होता द्वार पर खड़ा वही।