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दस्तक / सुमति बूधन
Kavita Kosh से
जलती चट्टानों की चिनगारियाँ तैर रही हैं
ठहरी हुई आँखों के पर्दे पर ।
शून्य की गोद में चिपक गया है
जीवन का एक टुकड़ा ।
एक टुकड़ा छान रहा है ,
उस ज़हर को ।
एक टुकड़ा आहें भर रहा है,
खुलते दरवाजों की चरमराहटों पर ।
नंगे पाँव खड़ी रही आग के सैलाब पर,
लपटें उड़ती रहीं......उड़ती रहीं ,
आकाश में बर्फ़ की चादर बनकर।
चट्टानें गुम हो गईं........
हवा के कण-कण में
जलन की एक सीमा बाँधकर ।
शरीर गलकर पसर गया,
पैरों तले सूखी मिट्टी बनकर।
कंकाल जम गया वहाँ,
अपनी बंद मुट्ठी को आकाश कसते हुए ।
नई मिट्टी की कोख से
जब उगेगा ज़हर का बीज,
तब कंकाल अपनी बंद मुट्ठी खोलकर
ठहरी हुई हवा को दस्तक देगा ।