दस्तावेज / निमिषा सिंघल
दबे पांव तृष्णायें घेर लेती है एकांत पा,
विचारों की बंदिनी बन असहाय हो जाती है चेतना।
अवचेतन मन घुमड़ने लगता है बादल बन,
लहलहाने लगती है विचारों की फसल।
ऋतु परिवर्तित हो बसंती हवा से भिगोने लगती है मन।
मन के किसी कोने में बहुमूल्य दस्तावेजों के पन्ने खुलने लगते हैं एक-एक कर,
संवेदनाएँ घेर लेती हैं।
धावों से रिसने लगता है लहू।
फिर शब्दों का मरहम शांत कर देता है मन,
समुंद्र की तलहटी में जाकर सुकून ढूँढता-सा मन फिर सतह
पर तैरने लगता है।
अद्भुत है यह प्रयास डूबने और तैरने का।
साहसी, विद्रोही मन, छलनी देह को बांसुरी बना बजने लगता है,
आर्मी बैंड की धुन "वीर तुम बढ़े चलो" की तरह।
लेखनी हथियार बन सिर क़लम करने लग जाती है
शोषित, पीड़ित, अपराध बोध से ग्रसित आत्मा का।
सिर क़लम होते ही परिंदे-सी रुह,
बाहर निकल हंसने लगती है मुझ पर,
हथौड़े की चोट-सी वह हंसी चटकाने लगती है अंतर्मन।
आंखे तरेर जताने लगती है घाव,
लेखनी पढ़ ही लेती है उन घावों को और रच देती है काव्य
दस्तावेजों में संग्रह करने के लिए।