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दस्तेह-मुन्इम मेरी मेहनत का ख़रीदार सही / मजरूह सुल्तानपुरी
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दस्तेह-मुन्इम मेरी मेहनत का ख़रीदार सही
कोई दिन और मैं रुसवा सरे-बाज़ार सही
बोल कुछ बोल मुक़ैयद लबे-इज़हार सही
सरे-मिंबर नहीं मुमकिन तो सरे-दार सही
फिर भी कहलाऊँगा आवारा-ए-गेसू-ए-बहार
मैं तेरा दामे-खिज़ां, लाख गिरफ़्तार सही
आने दे बाग के ग़द्दार मेरा रोज़े-हिसाब
माँगे तिनका न मिलेगा यही ग़ुलज़ार सही
जस्त करता हूँ तो लड़ जाती है मंज़िल से नज़र
हाइले-राह कोई और भी दीवार सही
ग़ैरते-संग है साक़ी ये ग़ुलू-ए-तिश्ना
तेरे पैमाने में जो मौज है तलवार सही