भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दस्तेह-मुन्इम मेरी मेहनत का ख़रीदार सही / मजरूह सुल्तानपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दस्तेह-मुन्‍इम मेरी मेहनत का ख़रीदार सही
कोई दिन और मैं रुसवा सरे-बाज़ार सही

बोल कुछ बोल मुक़ैयद लबे-इज़हार सही
सरे-मिंबर नहीं मुमकिन तो सरे-दार सही

फिर भी कहलाऊँगा आवारा-ए-गेसू-ए-बहार
मैं तेरा दामे-खिज़ां, लाख गिरफ़्तार सही

आने दे बाग के ग़द्दार मेरा रोज़े-हिसाब
माँगे तिनका न मिलेगा यही ग़ुलज़ार सही

जस्‍त करता हूँ तो लड़ जाती है मंज़िल से नज़र
हाइले-राह कोई और भी दीवार सही

ग़ैरते-संग है साक़ी ये ग़ुलू-ए-तिश्ना
तेरे पैमाने में जो मौज है तलवार सही