दस दोहे (111-120) / चंद्रसिंह बिरकाली
तकड़ा भरिया तालड़ा चिलकै किरणां पाय।
धोरा धुप राता हुआ न्हाय हरी वणाय।। 111।।
खूब भरे हुए ताल किरणों के प्रकाश में उद्भासित हो रहे है। टीले धुल कर लालिमायुक्त हो गये है। और वनराजि स्नान कर हरी-भरी हो उठी है।
भूरा-भूरा धोरिया भरिया मामोल्यां।
चरच्यो धरा लिलाड़ ज्युं कूं-कूं री टीक्यां।। 112।।
भूरे-भूरे धोरे वीरबहूटियों से भरे हुए है, मानों धरा ने कुंकम की बेंदियों से ललाट-अर्चन किया है।
बूंदी लाल ममोलिया हरियो आंगण खोड़।
ओढ़ी धरती चूनड़ी तीजणियां री होड़।। 113।।
धरा के हरे-भरे आंगन पर वीरबहूटियों लाल बेंदियों की भांति है, मानो तीजनीयों की स्पर्धा में धरती ने चूनर ओढ़ली है।
बीजळियां जळहर मिळै आभो धर मिळ एक।
बेलड़ियां विरछां मिळै प्रीतम राखे टेक।। 114।।
बिजलियां जलधरों से मिल रही है, आकाश और धरती मिल कर एकाकार हो गये है, वल्लरियां वृक्षों से मिल रही है - है प्रियतम, मेरी टेक भी रखना।
वूठी जोरां बादळी टूट्या टीबड़िया।
नाडा खाडा डैरियां तातरिया भरिया।। 115।
बादली जोर से बरसी, टीले टूट गये और नाले, खड्डे, डैर और ताल भर गये।
हरिया-हरिया रूंखड़ा लागी लूंबण बेल।
हळको झोलो पवन रो आय बिगाड़ै खेल।। 116।।
हरे-हरे वृक्षों से बेलें लिपटने लगी, पवन का हल्का सा झोंका आकर खेल बिगाड़ने लगा।
खरसंडिया खैंरू करै गेर दडूकै सांड।
नारा गोधा वाछड़ा मच-मच हावैटांड।। 117।।
‘खरसंडिया‘ बैल मस्ती में सींगों से धूल उछाल रहे है, गायों की गोर में सांड दडूक रहे है और बैल, गोधे तथा बछड़े उछल-कूद कर हृष्ट-पुष्ट हो रहे है।
बांडी काळा गोहिरा सरळक अर संखचूड़।
परवा में गैळीजिया लिट-लिट ठंडी धूड़।।118।।
बांडी, काले नाग, गोहिरे, सरलक और शंखचुड़ आदि विषैले जीव पूर्वीय पवन में विष से उन्मत्त हो ठण्डी धूल पर लोट-पोट हो रहे है।
टोळो सांभ्यो राईकां गायां लार गुवाळ।
बाळक वाछड़ियां लियां लाग्या करण रूखाळ।। 119।।
ऊंटो के रखवालों ने ऊंटो का टोला संभाल लिया है, ग्वाले गायों के पीछे हो लिए है और बालक बछ़डो को लेकर रखवाली करने लग गये है।
कंचन नगरी सी वणी बादळियां सूं आज।
झिलमिल-झिलमिलू कांगरा सूरज स्वागतकाज।। 120।।
आज बादलियों से कंचन-नगरी सी बन गई है। सूर्य के स्वागत के लिए इस नगरी के कंगूरे जगमगा रहे है।