दस दोहे (121-130) / चंद्रसिंह बिरकाली
जड़ सूं थोड़ी ऊपरां काळी बादळ रेख।
भींत बणाई मूंगियां सुथरो सागर देख।। 121।।
क्षितिज से थोड़ी ऊपर काले बादलों की रेखा ऐसी लगती है मानों मूंगों ने अच्छा समुद्र देखकर दीवाल बनाली है।
बादळ फाटण लागिया चौवे कस चौफेर।
इन्द्रधनस मिस भेजियो धरा धनख उण वेर।। 122।।
बादल फटने लग गए है चारों ओर जल-शेष चू रहा है। इन्द्रधनुष के मिस उस समय धरा के लिए धनख (चीर) भेजा गया।
बण-ठण आई बादळी राची धर रंग-राग।
चेतन अत चंचळ हुयो जड़ जग उठियो जाग।। 123।।
बादली बन-ठन कर आई और धरा राग-रंग में अनुरक्त हो गई। चेतन जगत अति चंचल हो गया और जड़ जगत जाग उठा।
मोठ कटोरां जोड़ में माची माची वेल।
फूला भार लदी पड़ी विच-विच चींया मेल।। 124।।
खूब हरी-भरी फैली हुई बेंले फूलों के भार से लदी पड़ी है और बीच-बीच में कच्चे फल दिखाई दे रहे है।
छींकै टीबी पर खड़या अड़वै कानी जोय।
पान खड़क्यां छींकला ऊं परछाळां होय।। 125।।
टीले पर खड़े हुए मृग, खेत में छाया पुरूष की ओर देखकर आंशकाजनित ‘छीं-छीं‘ ध्वनि कर रहे है और पत्ते के खड़कने का शब्द सुनते ही चौकड़ी साध जाते है।
आज सिधावो तो सिधो दीज्यो मती विसार।
तिसवारी जद आवसी सुध लीज्यो उणवार।। 126।।
बादली, आज यदि जा रही हो तो जाओ पर भुला न देना। जब प्यास का समय आये तो सुधि लेना।
गोळा छूट्या गोफियां गुपिया बादळियां।
ओळां मिस उल्टाईया फुर-फुर फांफड़ियां ।। 127।।
खेतो के रक्षकों ने गोफनों में डालकर जो पत्थर फेंके उन्हें बादलियों ने पकड़ लिया और ओलों के मिस पानी के झोंको के साथ उन्हें वापिस फेंक दिया।
बिरखा काठी राखले मतना कोसो झाड़।
पाकां धानां मत करे ओळां री बोछाड़।। 128।।
बादली, तेरी वर्षा को अपने पास ही संभाल कर रखलो, बचे-खुचे जल को युं मत डालो। पके हुए धान पर ओलों की बौछार मत करो।
ओळां डोका टूटसी झड़सी सारो फाळ।
समो लगायो सातरो कर मत पाछो काळ।। 129।।
इन ओलों से डंठल टूट जायेंगें और सारा अन्न झड़ जायेगा। इतना अच्छा समय हो गया है, अब फिर अकाल न कर देना।
सिधा-सिध ए बादळी बस सुरगां रै वास।
बरसाळै मत भूलजे तूं ही मुरधर-आस।। 130।।
हे बादली, सिधारों, स्वर्ग में वास करों। बरसात के समय मत भूल जाना, तुम ही मरूधरा की आषा हो।
।। सम्पूर्ण।।