दस दोहे (31-40) / चंद्रसिंह बिरकाली
उठती दीसी बादळी मऊ रह्मा जे आज ।
घर कानी जी चालियो सुण-सुण मधरी गाज ।।31।।
बादली को उठते हुई देखकर और उसका मधुर-मधुर गर्जन सुन कर आज परदेश गए हुओं का भी मन घर जाने के लिए लालायित हो उठा है ।
घूम घटा चट ऊमटी छायी मुरधर आय ।
मऊ गयां नै मोड़िया मधरी गाज सुणाय ।।32।।
शीघ्र ही उमड़-घुमड़ कर घटा मरूधरा पर छा गई । मधुर गर्जन सुना कर इसने परदेस गए हुओं को भी लौटा लिया है ।
ऊगत नाख्या माछला छिपतां नाखी मोग ।
सूरज तकड़ो तापियो कर विरखा संजोग ।।33।।
उगते और छिपते दोनों समय शुभ शकुन रूप में "माछला" और "मोग" नामक लालिमा की लंबी धाराएँ फैला कर वर्षा का संयोग कराने वाला सूर्य आज ख़ूब तपा ।
ऊंडी अंबर में उठी गह डंबर घहराय ।
वरस सुहाणी वण घटा सारी धर सरसाय ।।34।।
आकाश में ख़ूब गहरी घहरा कर उमड़ती हुई बादली, सुहावनी घटा बन कर बरसो, जिससे सारी धरा सरसित हो उठे ।
घटाटोप आभो घिरयो रह्मो खूण धरराय ।
आखी जीया-जुण रो हियो हिलोळा खाय ।।35।।
घने मेघों से आछन्न आकाश ख़ूब घर्रा रहा है। अखिल जीव योनियों का हृदय आलोड़ित हो रहा है ।
काळी-काळी कांठळी उजळी कोरण जोय ।
उतर दिस उठियो जाण हिंवाळो होय ।।36।।
काली काली कंठुली-सी बादली की उजली कोरे देखो, मानो उतर दिशा में हिमालय ही उठ आया हो ।
अम्बर में उमड घटा आभै अटकी आंख ।
चढ़-चढ़ छातां छोळ में मोर संवारै पांख ।।37।।
उमड़ती घटा को देखकर आकाश में आखें अटक गई है। छतों पर चढ़ कर आनंदातिरेक में मोर पाखें फैला रहे हैं ।
जोड़ कांगसी जो सूं कुंडाळो करियां ।
बाळक मांगे बादळी, भर दे तालरियां ।।38।।
मज़बूती से हाथों में परस्पर कंघी डाले चक्राकार खड़े बालक विनय कर रहे है - "बादली, हमारे ताल भर दो" ।
मीठा बोलै मोरिया डूंगा टोकां गाज ।
पळ पळ साजन संभरै इसड़ी वेला आज ।।39।।
मोर मीठी बोली बोल रहे है और गहरे बादलों में मधुर गर्जन हो रहा है। ऐसे समय में पल-पल पर साजन की स्मृति आ रही है ।
मीठा बोलै मोरिया डूंगा टोकां गाज ।
साजन आज सांकडै जीव भुळै किण साज ।।40।।
मोर मीठी बोली बोल रहे है और गहरे बादलों में मधुर गर्जन हो रहा है । आज साजन पास में नही है, हृदय को कैसे बहलाया जाये ?